रायपुर। होश संभालते ही मिट्टी के बर्तनों की एक छोटी-सी दुकान में बैठना क्या हुआ, वही काम किस्मत की लकीर में लिख गया। परिवार में ये कारोबार होता रहा है। बचपन में दुकान जाया करती थी। शादी हुई, ससुराल आई। लेकिन सुख नहीं मिला। ये दर्द भरी कहानी है 50 वर्षीया शबाना बेगम की, जो कालीबाड़ी में मिट्टी के दीये, गुल्लक, घड़ा बेचने का काम करती हैं। शबाना बेगम के दिल में आज भी गुजरे दिनों की बातें ताजा हैं। वे बताती हैं कि पैसों की तंगी की वजह से पति और दो बच्चों का साथ छूट गया। वे इस दुनिया में नहीं रहे। अब अपना और बेटी का पेट पालना है तो मिट्टी के बर्तन बेच रही हूं, कुम्हारों से दीए खरीद कर लाती हूं। लेकिन फैंसी मिट्टी के बर्तनों ने कमर तोड़ दी है।
ग्राहक मांगते हैं फैंसी दीये– शबाना बताती हैं कि परिवार के मुखिया के इंतकाल के बाद दो बच्चों की मौत ने उन्हें तोड़ दिया। इसके बाद कुछ भी करना नहीं चाहती थीं। जीवन की नैया कैसे पार होगी, बेटी का जीवन बेहतर बने, इसलिए हिम्मत कर दुकान में बैठी हूं। सालों से मिट्टी के बर्तनों को बेच रही शबाना का कहना है कि ग्राहक भी वर्षों से चले आ रहे दीये की मांग नहीं करते हैं। उन्हें लगता है कि फैंसी दीये से अधिक रोशनी होगी, जबकि इस तरह की सोच सिर्फ मिथ्या है। कई बार दुकान पर आ रहे ग्राहकों को जानकारी भी देती हूं,लेकिन उन्हें लगता है कि स्वयं के फायदे के लिए कह रही हूं।
नहीं होती अधिक कमाई– कुंभकार हो या बेचने वाले दुकानदार, सबकी स्थिति एक जैसी है। माटीकला बोर्ड के माध्यम से एक तरफ जहां समाज के लोगों को कोई मदद नहीं मिलती है, वहीं कलरफुल दीये ने कमाई को घटा दिया है, जबकि एक दौर था कि प्रति दुकानदार डेढ़ हजार तक देसी मिट्टी के दीये बेच लेता था। इससे त्योहारों में उसे लागत मिल जाती थी। अब तो नाम मात्र की कमाई रह गई है।
बैंक कर्ज भी नहीं देता– मिट्टी के बर्तन बेच रही जामवती घृतलहरे की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। बच्चे होने के बाद भी उनका सहयोग इसलिए नहीं करते, क्योंकि इसमें बहुत अधिक फायदा नहीं है। इसलिए बुढापे में जामवती किसी का सहयोग लेने के बजाय मिट्टी के बर्तन बेच रही हैं। स्वयं की व्यथा पर चर्चा करते हुए कहती हैं कि बैंक कर्ज भी नहीं देता है। मजबूरी में सोसायटी से कर्जा लेती हूं, जिसे दुगुना देना पड़ता है।