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कैसी कैसी हैं परम्पराएं……

रिक्शा चलाने वाले से लेकर देश चलाने वाले तक की जमात है ये सब सिर्फ एक खेल के लिए

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कायदे से देखिए तो ये महज़ एक प्रैक्टिस है जो किसी एक ने शुरू की किसी और ने उसकी नकल की और फिर वो रिवायत बन गई बिना इस बात की परवाह किए कि क्या सही है क्या गलत लॉजिक लगाने की गुंजाइश जिसमें नहीं होती उसे ही परंपरा समझ लीजिए जिस तरह ये ज़रूरी नहीं है कि हर परंपरा गलत हो उसी तरह ये भी ज़रूरी नहीं है कि हर परंपरा सही हो वारदात में आपको ऐसी ही तमाम जली.कटी परंपराओं से आपको रू.ब.रू करा रहे हैं
बहुत बारीक सी लाइन है आस्था और अंधविश्वास में बस इसी को समझने की ज़रूरत है कायदे से समझाया जाता तो शायद लोग समझ भी जाते मगर इन दोनों के दरमियान सियासत भी घुस जाए तो लकीर थोड़ी और मोटी हो जाती है और फिर अंधविश्वास में भी विश्वास जगा दिया जाता है वरना सोचिए कितना मुश्किल सही को सही और गलत को गलत समझना
विविधता में एकता ये एक बहुत भारी भरकम लाइन है देश के लिए अक्सर इस लाइन का इस्तेमाल किया जाता है मगर इस लाइन को भी आस्था और अंधविश्वास की लाइन से कोई बहुत ज़्यादा मोटी मत समझिए क्योंकि जिस विविधता का सबक हमें बरसों से पढाया जा रहा है वो दरअसल इन्हीं रवायतों को मिलाकर बनी है इसे इस देश की त्रास्दी ही कहिए कि जिन रिवायत को लोग मिलकर बनाते हैं आज वही रिवायत लोगों को बना रही हैं एक राज्य के मुख्यमंत्री सैकड़ों किमी का सफ़र तय कर के प्रधानमंत्री से सिर्फ इसलिए मिलने आता है ताकि वो उस परंपरा को फिर से शुरू करा सकें जिसे सुप्रीम कोर्ट ने खतरनाक बताते हुए बैन कर दिया है
जल्लीकट्टू के लिए पूरे देश में हंगामा रिक्शा चलाने वाले से लेकर देश चलाने वाले तक की जमात है ये सब सिर्फ एक खेल के लिए है जो परंपरा तो है मगर धर्म नहीं किसी रवायत को गलत या सही कहना हमारा मकसद नहीं मगर दक्षिण भारत में अगर जल्लीकट्टू है तो उत्तर से लेकर पश्चिम तक और पश्चिम से लेकर पूरब तक भारत में दिमाग सुन्न कर देने वाली ऐसी परंपराओं की अच्छी खासी फेहरिस्त है
कहीं बीमारी ठीक करने के नाम पर बच्चों को ज़मीन में गाड़ दिया जाता है तो कही बाबा का करम पाने के लिए मासूमों को 50 फीट की ऊंचाई से फेंक दिया जाता है धधकते अंगारों पर चलकर यहां पुण्य भी कमाए जाने का दावा किया जाता है तो कहीं लोग अपने जिस्मों पर सिर्फ इसलिए मवेशियों को दौड़ा देते हैं कि भगवान मन की मुराद सुन लेंगें परंपरा तो हमारे देश में ऐसी ऐसी हैं कि यकीन भी करने को दिल न करे डिजीटल इंडिया के दावों के बीच एमपी में कहीं लोग एक दूसरे पर बारूद की बारिश करते हैं तो कहीं सिर्फ इसलिए एक दूसरे पर पत्थर बरसाकर लोग उस गलती की शर्मिंदगी का एहसास करने की कोशिश करते हैं जो करीब 400 साल पहले की गई थी
यूं भी लॉजिक का मज़हब से दूर दूर तक कोई ताल्लुक होता नहीं इसलिए मन्नत मुरादों को मांगने के तरीके का भी कोई पैमाना हो ऐसा सोचना भी गलत होगा रिवायत के नाम पर गाल में सुई घुसाकर आरपार कर दीजिए कोई दिक्कत नहीं लोहे के हुक को बदन में घुसाकर खंबे से लटका भी दिया जाए तो ऊफ नहीं क्योंकि जहां विज्ञान की सोचने की सहाुलियतयत खत्म हो जाती है वहां से तो आस्था और अंधविश्वास सिर्फ शुरूआत करते हैं और ऐसे में आप अंदाज़ा लगा लीजिए कि अगर इन्हें गलत साबित करने की कोशिश भी करेंगे तो लोगों की अलग.अलग दलीलें आपके हर लॉजिक को फेल कर देंगीं इसलिए चमत्कार को सिर्फ नमस्कार कीजिए लॉजिक में मत घुसिए

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