बुजुर्ग अमृतलाल जोशी पुराने दिनों की याद करते हुए बताते हैं-बात 1972 के आसपास की है। हम लोग बमुश्किल 8-10 साल के थे, उस वक्त सभी बच्चे उत्साहित होकर अपनी शर्ट पर कागज का बिल्ला लगाते थे। पार्टी कोई भी हो, इससे बच्चों को कोई मतलब नहीं होता था। जो बिल्ला शानदार होता था उसे लपकने के लिए बच्चों में होड़ लगी रहती थी। उम्मीदवार बच्चों को टॉफी, चॉकलेट अथवा 25-50 पैसा देकर झंडा थमा देते थे और बच्चे नारे लगाते हुए गलियों में निकलते थे। किसी पार्टी का बोलबाला नहीं होता था, चुनाव में वही जीतते थे जो मिलनसार होते थे। अब तो चुनाव हाइटेक हो गया है और सभी नेता मतलबी हो गए हैं। दलगत राजनीति हावी हो चुकी है। जोशी का कहना है कि आज से 40-45 साल पहले बुजुर्गों की कद्र होती थी। वही तय करते थे कि चुनाव में कौन लड़ेगा और किसे जीतना चाहिए। आज के नेता सिर्फ सेवा करने का आश्वासन देते हैं और बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, ऐसे वादे करते हैं जो कभी पूरे नहीं किए जाते। जनसेवक बनने का ढोंग करते हैं। पहले के लोग झूठे वादे नहीं करते थे। आज चुनाव का व्यावसायीकरण हो गया है। एक समय था जब कामरेड सुधीर मुखर्जी जैसे कर्मठ, ईमानदार लोग बिना खर्च किए चुनाव जीत जाते थे। अब पार्षद बनने के लिए भी लाखों रुपये खर्च करने पड़ते हैं। झुग्गियों में दारू बांटी जा रही है, लोग जमकर दारू पी रहे हैं, इसका बुरा असर पड़ रहा है।