धमतरी। शहर के अंतिम छोर पर दक्षिण दिशा में अधिष्ठात्री मां बिलाई माता का मंदिर स्थित है। चैत्र व क्वांर नवरात्र में यहां भक्तों की भीड़ उमड़ती है। वर्षों पुराने इस मंदिर को लेकर कई जनश्रुतियां प्रचलित हैं। इनकी उत्पत्ति के संबंध में मार्कण्डेय पुराण देवीमाहा 11/42 में उल्लेख है। मंदिर के संदर्भ में दो जनश्रुति प्रचलित है। पहली जनश्रुति के अनुसार मूर्ति की उत्पत्ति या तो धमतरी के गोड़ नरेश धुरूवा के काल की है। या तो कांकेर नरेश के शासनकाल में उनके मांडलिक के समय की है। आज जहां देवी का मंदिर है, वहां कभी घना जंगल था। जंगल भ्रमण के दौरान एक स्थान के आगे राजा के घा़ेडों ने बढ़ना छोड़ दिया। खोजबीन करने पर राजा को एक छोटे पत्थर के दोनों तरफ जंगली बिल्लियां बैठी हुई दिखाई पड़ी, जो अत्यंत डरावनी थीं।
राजा के आदेश पर तत्काल बिल्लियों को भगाकर पत्थर को निकालने का प्रयास किया गया, लेकिन पत्थर के बाहर आने की बजाय वहां से जल धारा फूट पड़ी। राजा को स्वप्न में देवी ने कहा किउन्हें वहां से निकालने का प्रयास व्यर्थ है। अतः उसी स्थान पर पूजा अर्चना की जाए। राजा ने दूसरे दिन ही वहीं पर देवी की स्थापना करवा दी।
कालांतर में इसे मंदिर का स्वरूप प्रदान कर दरवाजा बनाया गया। प्रतिष्ठा के बाद देवी की मूर्ति स्वयं ऊपर उठी और आज की स्थिति में आई। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आज भी देखने को मिलता है। पहले निर्मित द्वार से सीधे देवी के दर्शन होते थे। उस समय मूर्ति पूर्ण रूप से बाहर नहीं आई थी, किंतु जब पूर्ण रूप से मूर्ति बाहर आई तो चेहरा द्वार के बिल्कुल सामने नहीं आ पाया, थोड़ा तिरछा रह गया। मूर्ति का पाषाण एकदम काला था।
मां विंध्यवासिनी देवी की मूर्ति भी काली थी। उन्हें विंध्यवासिनी देवी और छत्तीसगढ़ी में बिलाई माता कहा जाने लगा। इस मंदिर को प्रदेश की 5 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। इसकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई है। देश के अलावा विदेश से भी लोग ज्योत प्रज्जावलन करते हैं।