नरसिंहपुर। भोपाल से लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा प्रत्याशी साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर के मामले में शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का कहना है कि वो साध्वी नहीं है। भगवा धारण करने वाला हर कोई साधु नहीं होता। शंकराचार्य ने अपने तर्क भी दिए कि क्यों प्रज्ञा सिंह ठाकुर एक साध्वी नहीं है।
शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने कहा कि प्रज्ञा ठाकुर साध्वी नहीं हैं। अगर वे साध्वी होती तो अपने नाम के पीछे ठाकुर क्यों लिखती। उन्होंने कहा साधू-साध्वी होने के मतलब है ऐसे व्यक्ति की सामाजिक मृत्यु हो जाना। साधू-संत को समाज से कोई मतलब नहीं होता वे पारिवारिक जीवन नहीं जीते, लेकिन प्रज्ञा के साथ ये सब चीजें लगी हुई हैं। इसलिए वे साध्वी नहीं हैं। प्रज्ञा को अपनी बात कहते समय भाषा पर संयम रखना चाहिए। सनातन धर्म में सन्यास का बहुत महत्व है। इस धर्म में सन्यासी को शिव के समान माना जाता है। शास्त्रसम्मत विधी के अनुसार सन्यास की अपनी मर्यादा है।
सनातन धर्म में सन्यास का बहुत महत्व है। इस धर्म में सन्यासी को उसे शिव के समान माना जाता है। यूं तो सन्यास का अर्थ होता है इंद्रियों का निग्रह। यानि इन्द्रयों पर इतना नियंत्रण कर लेना कि वह अनुपयोगी हो जाएं। शास्त्रों में कहा गया है कि चीजों का उपयोग करना लेकिन उनसे राग ना पालना ही योगी के लक्षण हैं।
लेकिन शास्त्रसम्मत विधी से देखें तो सन्यास की अपनी मर्यादा है। इन्हीं मर्यादाओं को ध्यान में रखते हुए कुछ प्रक्रिया होती हैं जिनका विधिवत पालन करने पर ही सन्यासी को पूर्ण माना जाता है। इस प्रक्रिया में संन्यास लेने वाले को कुछ चरण पार करने होते हैं। सन्यासी जीवन बेहद कठिन है, जिसमें कठिन तप से गुजरना पड़ता है। सभी इंद्रियों सहित काम, क्रोध, लोभ, मोह, माया, अहंकार और तृष्णा को समाप्त कर चित्त को ईष्ट की आराधना में तल्लीन करना होता है। सेवा भाव, ध्यान के प्रति समर्पण, मोक्ष की कामना और शून्यता की ओर लगातार अग्रसर होना सन्यासी की दिनचर्या में शामिल होते हैं।