Home मनोरंजन कितनी हकीकत है और कितना फसाना…….

कितनी हकीकत है और कितना फसाना…….

243
0

द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर : फिल्म समीक्षा

भारत में राजनीति या राजेनताओं पर फिल्म बनाना अब तक आसान नहीं था, लेकिन ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ ने इस सिलसिले को शुरू किया है। संभवत: यह पहली ऐसी फिल्म है जिसमें उन सभी नेताओं को नाम के साथ दर्शाया गया है जो राजनीतिक के क्षेत्र में बड़े नाम रहे हैं।

यह फिल्म संजय बारू द्वारा इसी नाम से लिखी किताब पर आधारित है। संजय बारू पत्रकार थे। जब मनमोहन सिंह ने 2004 में प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारी संभाली तो संजय को अपना मीडिया एडवाइजर नियुक्त किया। मनमोहन सिंह के भाषण संजय लिखते थे और उन्हें जरूरी सलाह भी देते थे। अपने इसी अनुभव को उन्होंने किताब में लिखा है।

कितनी हकीकत है और कितना फसाना, ये बात पूर्व प्रधानमंत्री और संजय जानते हैं। संजय ने अपनी बात किताब के जरिये रख दी है और किताब में लिखी बातों का पीएमओ खंडन कर चुका है यानी झूठला चुका है। यह फिल्म देखने वाले या किताब पढ़ने वाले पर निर्भर है कि वह अपने हिसाब से कितना ग्रहण करता है।

फिल्म में दिखाया गया है कि 2004 में कांग्रेस ने गठबंधन के जरिये सरकार बनाई। सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनना चाहती थीं, लेकिन उनके विदेशी होने के मुद्दे पर लोग खिलाफ थे, आखिरकार मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के रूप में चुना गया। अचानक प्रधानमंत्री बन गए मनमोहन पर सोनिया और उनकी टीम पकड़ बनाए रखना चाहती थी, इसलिए एक समिति बनाई गई।

मनमोहन को हर फैसले के लिए हाईकमान की ओर देखना पड़ता था। मनमोहन को एक साथी की जरूरत पड़ी और उन्होंने संजय बारू को रख लिया। पार्टी और प्रधानमंत्री के बीच संजय आ गए। संजय की सलाह से मनमोहन सिंह ने कई कड़े फैसले लिए जो कांग्रेस पार्टी को चुभने लगे। मिसाल के तौर पर न्यूक्लियर डील पर पूर्व प्रधानमंत्री ने इस बात की परवाह नहीं की कि कुछ पार्टियां उनकी सरकार गिरा सकती है।

हाईकमान ने जब ज्यादा दबाव बनाया तो मनमोहन सिंह ने पद छोड़ने की पेशकश भी की जो ठुकरा दी गई क्योंकि उस समय राहुल गांधी के लिए अनुकूल माहौल नहीं था। इस फिल्म के जरिये यह दर्शाया गया है कि मनमोहन सिंह बहुत समझदार थे, लेकिन उनकी हालत भीष्म जैसी थी जिसने एक परिवार को ही सब कुछ माना।

विजय रत्नाकर गुट्टे द्वारा निर्देशित यह फिल्म एक बहुत बड़ा अवसर थी, जिसे कोई मंझा हुआ निर्देशक बनाता तो बात ही कुछ और होती। विजय ने अपनी तरफ से पूरी जरूर की है, लेकिन बात पूरी तरह नहीं बन पाई। फिल्म की शुरुआत में यह दिखाया गया है कि फिल्म मनोरंजन के लिए बनाई गई है, कुछ कल्पनाएं जोड़ी गई हैं, जिससे फिल्म की गंभीरता पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है।

फिल्म में चौंकाने वाले खुलासे बहुत कम है, जैसे पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव के अंतिम संस्कार को लेकर पार्टी का रूख सही नहीं था, यदि इनकी संख्या ज्यादा होती तो फिल्म का वजन बढ़ जाता। साथ ही फिल्म बहुत गहराई में नहीं जाती है।

मनमोहन सिंह को जीनियस तो कहा गया है, लेकिन इस तरह के सीन फिल्म में कम हैं। पूरे समय मनमोहन सिंह मजबूर और कमजोर व्यक्ति नजर आते हैं। उनसे समझदार उनकी पत्नी को दर्शाया गया है।
फिल्म संजय बारू को ज्यादा होशियार साबित करती है। मानो यह किताब संजय बारू ने अपने लिए लिखी हो कि वे कितने होशियार हैं और प्रधानमंत्री के जो भी महत्वपूर्ण फैसले हैं उनके पीछे सिर्फ उनका हाथ है। बारू का फिल्म में यह दबदबा कई बार अखरता भी है।

निर्देशक के रूप में विजय बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं करते। उन्होंने अपना प्रस्तुतिकरण ‘राजनीति के गलियारों के गपशप’ जैसा रखा है, इससे फिल्म हल्की-फुल्की लगती है, लेकिन उनके निर्देशन में बहुत ज्यादा गहराई नहीं है। वो तो विषय उन्हें दमदार मिल गया इसलिए उनका काम आसान हो गया। निर्देशक ने राहुल गांधी को ‘पप्पू’ वाली छवि के रूप में पेश किया है जिससे उसके इरादों पर सवाल खड़े होते हैं।
पहले हाफ में पीएमओ ऑफिस, उसके अंदर होने वाली हलचल, प्रधानमंत्री को काबू में रखने के लिए कांग्रेस की रणनीति, न्यूक्लियर डील पर मनमोहन सिंह का कड़ा रूख वाले प्रसंग अच्छे लगते हैं। दूसरे हाफ में फिल्म दिशा ही भटक जाती है और निर्देशक की पकड़ कमजोर पड़ जाती है। यहां बारू का पलड़ा भारी दिखाया गया है कि उनके बिना मनमोहन सिंह असहाय हो जाते हैं।

अनुपम खेर ने मनमोहन सिंह के किरदार को बहुत ही बढ़िया तरीके से निभाया है। मजबूरी और झटपटाहट उनके अभिनय से व्यक्त होती है। अनुपम खेर और मनमोहन सिंह का भेद बहुत जल्दी ही उनके अभिनय के कारण खत्म हो जाता है।

संजय बारू के किरदार में अक्षय खन्ना हैं और उनका अभिनय भी शानदार है। छोटी-छोटी भूमिकाओं में कई कलाकार हैं और कास्टिंग डायरेक्टर ने अपना काम बखूबी किया है। फिल्म की सिनेमाटोग्राफी औसत दर्जे की है और कुछ कैमरा एंगल बड़े अजीब हैं। फिल्म के संवाद अच्छे हैं, कुछ संवादों पर कैंची भी चल गई है।

द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर एक ऐसा विषय है जिस पर बेहतरीन फिल्म बनाई जा सकती थी, लेकिन विजय उसका पूरा उपयोग नहीं कर पाए। बावजूद इसके जिन्हें राजनीति में रूचि है वे इस फिल्म को देख सकते हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here