नरसिंहपुर : किसानों को वरिष्ठ वैज्ञानिकों एवं प्रमुख कृषि विज्ञान केन्द्र और कृषि विभाग ने जिले के किसानों को ग्रीष्मकालीन मौसम में सब्जी वर्गीय, गिल्की, खरबूज व लोबिया की फसल लगाने की सलाह दी है। तिलहन फसल की आवश्यकता को देखते हुए किसान गर्मी में तिल की फसल ले सकते हैं। साथ ही गर्मी में नई हरी खाद के रूप में व बीज उत्पादन के लिए एक विकल्प के रूप में अपना सकते हैं। किसान इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए स्थानीय बाजार की उपलब्धता उत्पाद की बिक्री, मृदा स्वास्थ्य व वातावरण का विशेष ध्यान रखकर फसलों का चुनाव किया जाये। किसान समय- समय पर कृषि वैज्ञानिकों से परामर्श ले सकते हैं। इसके अलावा किसान सारथी पोर्टल व वाट्सएप ग्रुप में अपनी समस्यायें भेज सकते हैं, जिसका निराकरण किया जा सके।
उल्लेखनीय है कि जिले में विगत वर्ष ग्रीष्मकालीन मूंग की बुवाई लगभग 1.40 लाख हेक्टर में की गई थी, जो इस वर्ष बढ़कर 1.50 लाख हेक्टर होने की उम्मीद जताई गई है। यह देखा जा रहा है कि खेतों में किसानों द्वारा ग्रीष्मकालीन मूंग की खड़ी फसल में 5-6 बार कीटनाशक का छिड़काव करते हैं। अनुशंसित मात्रा से अत्याधिक मात्रा में कीटनाशक का बार- बार छिड़काव के साथ ही खड़ी फसल खेत में पकने के उपरांत हरी फसल को सुखाने के लिए प्रतिबंधित नींदानाशक पैराक्वाड का उपयोग करते हैं, जिसका दुष्परिणाम वातावरण के साथ ही उत्पादित मूंग का सेवन करने वाले लोगों पर विपरीत प्रभाव भी होता है। इससे विभिन्न प्रकार की खतरनाक बीमारियां बढ़ रही है, जिसमें कैंसर भी शामिल है। साथ ही ग्रीष्मकालीन मूंग में अत्याधिक सिंचाई करनी पड़ती है। इससे पानी की खपत ज्यादा होने से भूमिगत जलस्तर नीचे गिरता जा रहा है। आने वाले समय में जल की कमी से भी जिले में समस्या उत्पन्न हो है।
पूर्व में किसानों द्वारा रबी फसल कटाई उपरान्त खेत खाली रखते थे, जिससे खेत में गर्मी के समय पड़ी दरारों से वर्षा का पानी इन दरारों के माध्यम से नीचे चला जाता था। इसके परिणाम स्वरुप भूमिगत जलस्तर बना रहता था। बार- बार फसल लेने से खेत की मिट्टी में मौजूद विभिन्न प्रकार के पौध पोषक तत्वों की मात्रा में कमी आ रही है। मिट्टी में नाइट्रोजन व पोटाश के साथ ही सल्फर व जिंक की कमी भी मृदा विश्लेषण उपरांत प्राप्त हुआ है। अतएव ग्रीष्मकालीन मूंग का क्षेत्रफल कम करना ही मानव स्वास्थ्य एवं पर्यावरण के लिए उचित होगा। इसके लिए कृषि विज्ञान केन्द्र के वैज्ञानिकों द्वारा निम्नवत अन्य फसलों के उत्पादन के लिए सुझाव दिये जा रहे हैं।
कृषि वैज्ञानिकों द्वारा ग्रीष्मकालीन मौसम में मूंग की फसल में अत्यधिक कीटनाशक दवाओं के उपयोग से धरती, पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य पर कई हानिकारक प्रभाव डालता है।
मिट्टी की उर्वरता में कमी: कीटनाशक मिट्टी में मौजूद लाभकारी सूक्ष्मजीवों को मार देते हैं, जिससे मिट्टी की उर्वरता कम हो जाती है।
जल प्रदूषण: कीटनाशक मिट्टी में रिसकर भूजल को प्रदूषित करते हैं, जिससे पीने के पानी की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
मिट्टी का अम्लीकरण: कुछ कीटनाशक मिट्टी के पीएच स्तर को बदल देते हैं, जिससे मिट्टी अम्लीय हो जाती है और फसलों के लिए अनुपयुक्त हो जाती है।
जैव विविधता में कमी: कीटनाशक हानिकारक कीटों के साथ-साथ लाभकारी कीड़ों और अन्य जीवों को भी मार देते हैं, जिससे जैव विविधता में कमी आती है।
वायु प्रदूषण: कीटनाशकों का छिड़काव वायु प्रदूषण का कारण बनता है, जिससे सांस की बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है।
पारिस्थितिक तंत्र में असंतुलन: कीटनाशक खाद्य श्रृंखला को बाधित करते हैं, जिससे पारिस्थितिक तंत्र में असंतुलन पैदा होता है।
कैंसर: कुछ कीटनाशकों को कैंसर का कारण माना जाता है।
तंत्रिका तंत्र पर प्रभाव: कीटनाशक तंत्रिका तंत्र को नुकसान पहुंचा सकते हैं, जिससे सिरदर्द, चक्कर आना और याददाश्त में कमी जैसी समस्याएं हो सकती हैं।
प्रजनन संबंधी समस्याएं: कुछ कीटनाशक प्रजनन क्षमता को प्रभावित कर सकते हैं।
त्वचा और आंखों में जलन: कीटनाशकों के संपर्क में आने से त्वचा और आंखों में जलन हो सकती है।
श्वसन संबंधी समस्याएं: कीटनाशकों के संपर्क में आने से अस्थमा और अन्य श्वसन संबंधी समस्याएं हो सकती हैं।
कीटनाशक न केवल हानिकारक कीटों को मारते हैं, बल्कि खेत के आसपास के अन्य जीव- जंतुओं को भी प्रभावित करते हैं, जिससे जैव विविधता कम होती है। इसके उपाय के रूप में जैविक खेती को बढ़ावा देना जैसे नीम का तेल या गौमूत्र का उपयोग आदि सम्मिलित है। एकीकृत कीट प्रबंधन- आईपीएम अपनाने से प्राकृतिक तरीकों और सीमित रासायनिक उपयोग का समन्वय हो, का भी उपयोग किया जा सकता है।